भाव सारांश-
'मीरा के पद' नामक कविता की रचयिता 'मीराबाई' हैं। पाठ्य-पुस्तक में संकलित पद में मीराबाई ने भगवान श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानते हुए उनके प्रति अपने दाम्पत्य भक्ति भाव का वर्णन किया है।
प्रभु श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति भाव को प्रदर्शित करते हुए मीराबाई कहती हैं कि मोरमुकुट धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ही उनके पति हैं। उनके अलावा किसी और के साथ वह दाम्पत्य भाव की कल्पना तक नहीं कर सकती हैं। मीरा के अनुसार कृष्ण की भक्ति में उन्होंने अपने कुल की मान-मर्यादा तक को विस्मृत कर दिया है। संतों के सानिध्य में बैठकर वह दीन-दुनिया की चिंता से मुक्त होकर भगवान श्रीकृष्ण के नाम का रसपान करने में रत हैं। उन्होंने अपने आँसुओं के जल से कृष्ण रूपी प्रेम-बेल को सींचकर बड़ा किया है। और अब इस भक्ति-बेल में आन्नद के फल आने लगे हैं। मीरा ने श्रीकृष्ण रूपी सारतत्व को प्राप्त कर अन्य सारहीन भौतिक अंश को त्याग दिया है। संसार के प्रति वैराग्य का भाव रखते हुए वह गिरिधर गोपाल की भक्ति में ही प्रसन्नता का अनुभव करती हैं और स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण की चरणों की दासी बताते हुए अपने आराध्य के प्रेम में डूबी हैं।
कवि परिचय
मीराबाई
जन्म- सन् 1498, कुड़की गाँव (मारवाड़ रियासत)
प्रमुख रचनाएँ- मीरा पदावली, नरसीजी-रो-माहेरो
मृत्यु- सन् 1546
मीरा सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री थीं। कृष्ण की उपासिका होने के कारण उनकी कविता में सगुण भक्ति मुख्य रूप से मौजूद है लेकिन निर्गुण भक्ति का प्रभाव भी मिलता है। संत कवि रैदास उनके गुरु माने जाते हैं। बचपन से ही उनके मन में कृष्ण भक्ति की भावना जन्म ले चुकी थी। इसलिए वे कृष्ण को ही अपना आराध्य और पति मानती रहीं।
अन्य भक्तिकालीन कवियों की तरह मीरा ने भी देश में दूर-दूर तक यात्राएँ कीं। चित्तौड़ राजघराने में अनेक कष्ट उठाने के बाद मीरा वापस मेड़ता आ गईं। यहाँ से उन्होंने कृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन की यात्रा की। जीवन के अंतिम दिनों में वे द्वारका चली गईं। माना जाता है कि वहीं रणछोड़ दास जी की मंदिर की मूर्ति में वे समाहित हो गईं।
उन्होंने लोकलाज और कुल की मर्यादा के नाम पर लगाए गए सामाजिक और वैचारिक बंधनों का हमेशा विरोध किया। पर्दा प्रथा का भी पालन नहीं किया तथा मंदिर में सार्वजनिक रूप से नाचने-गाने में कभी हिचक महसूस नहीं की। मीरा मानति थी कि महापुरुषों के साथ संवाद (जिसे सत्संग कहा जाता था) से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है। अपनी इन मान्यताओं को लेकर दृनिश्चयी थीं। निंदा या बंदगी उनको अपने पथ से विचलित नहीं कर पाई। जिस पर विश्वास किया, उस पर अमल किया। इस अर्थ में उस युग में जहाँ रूढ़ियों से ग्रस्त समाज का दबदबा था, वहाँ मीरा स्त्री मुक्ति की आवाज़ बनकर उभरीं।
मीरा की कविता में प्रेम की गंभीर अभिव्यंजना है। उसमें विरह की वेदना है और मिलन का उल्लास भी। मीरा की कविता का प्रधान गुण सादगी और सरलता है। कला का अभाव ही उसकी सबसे बड़ी कला है। उन्होंने मुक्तक गेय पदों की रचना की। लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत दोनों क्षेत्रों में उनके पद आज भी लोकप्रिय हैं। उनकी भाषा मूलतः राजस्थानी है तथा कहीं-कहीं ब्रजभाषा का प्रभाव है। कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा पर सूफ़ियों के प्रभाव को भी देखा जा सकता है। मीरा की कविता के मूल में दर्द है। वे बार-बार कहती हैं कि कोई मेरे दर्द को पहचानता नहीं, न शत्रु न मित्र।
यहाँ प्रस्तुत पद में मीरा ने कृष्ण से अपनी अनन्यता व्यक्त की है तथा व्यर्थ के कार्यों में व्यस्त लोगों के प्रति दुख प्रकट किया है। पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित-संपादित मीराँ मुक्तावली से लिया गया है।
पदों के प्रसंग संदर्भ सहित व्याख्या
पद 1. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जा के सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई
छांड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहै कोई?
संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोयी
अंसुवन जल सींचि-सीचि, प्रेम-बेलि बोयी
अब त बेलि फैलि गयी, आणंद-फल होयी
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
भगत देखि राजी हुयी, जगत देखि रोयी
दासि मीरां लाल गिरधर ! तारो अब मोही
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के 'मीरा के पद' से अवतरित है। इसकी रचयिता 'मीराबाई' है।
प्रसंग - प्रसंग-प्रस्तुत पद में मीराबाई ने भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मानते हुए उनके प्रति अपने अनन्य भक्ति भाव का परिचय दिया है।
भावार्थ - कृष्ण भक्ति में लीन मीराबाई कहती हैं कि मेरे तो सब कुछ गिरिधर गोपाल अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण ही है। उनके अलावा इस संसार में मेरा कोई सगा सम्बन्धी नहीं है। जिनके सिर पर मोर के पंखों का मुकुट शोभायमान है ऐसे प्रभु श्रीकृष्ण ही मेरे पति हैं। कृष्ण प्रेम में दीवानी हुई मीराबाई आगे कहती हैं कि उन्होंने कान्हा की भक्ति में कुल की मर्यादा तक को तिलांजलि दे दी है और अब मैं देखती हूँ कि इसके लिए मुझे कोई क्या कहता है ? कृष्ण दीवानी मीरा कहती हैं कि संतों के सानिध्य में बैठ-बैठकर उन्हें समाज की लोक-लाज की भी चिन्ता नहीं रही है। उन्होंने तो भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेम रूपी बेल को अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर बड़ा किया है और अब यह बेल अत्यधिक विस्तृत हो गई है और इस पर आनन्द रूपी फल उग आये हैं। अर्थात् मोरा को कृष्ण भक्ति में असीम आनन्द की अनुभूति होने लगी है। श्रीकृष्ण के नेह रंग में रंगी मीराबाई कहती हैं कि उन्होंने कृष्ण की प्रीति रूपी दूध को अपनी भक्ति रूपी मथनी से बड़े प्रेम से बिलोया है। उसमें से कृष्ण-भाव से सराबोर दही को भी मथकर घी निकालकर सहेज लिया है और अवशेष छाछ (सांसारिकता) को छोड़ दिया है। अर्थात् मीरा ने सारयुक्त तत्वों को ग्रहण करके सारहीन अंश को छोड़ दिया है। मीराबाई आगे कहती हैं कि उन्हें कृष्ण-भक्त देखकर अत्यधिक उल्लास एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है जबकि संसार को सांसरिकता के मकड़जाल में फंसा हुआ देखकर अपार कष्ट एवं पीड़ा होती है। स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण की दासी मानने वाली मीरा भगवान कृष्ण से याचना करते हुए आग्रह करती हैं कि हे मेरे प्रभु। अब इस दासी को अपनी शरण में लेकर उसका यथाशीघ्र उद्धार करने की कृपा करें। इसमें अब और प्रतीक्षा असहनीय है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) मीरा ने गिरिधर नागर को अपना पति परमेश्वर माना है। (2) 'बैठि-बैठि', 'सीचि सीचि' में पुनरुक्तिप्रकाश, 'प्रेम-बेल', 'आनंद-फल', 'मोर-मुकुट' में रूपक तथा 'दूध की मथनियाँ धोयी' में अन्योक्ति अलंकार है। साथ ही, पद में अनुप्रास अलंकार की छटा भी देखते ही बनती है। (3) भक्तिरस एवं शांतरस की उपस्थिति है। श्रृंगार रस की प्रधानता है। (4) माधुर्य गुण विद्यमान है। (5) राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है।
शब्दार्थ
कानि - मर्यादा
ढिग - साथ
बेलि - प्रेम की बेल
विलोयी - मथी
छोयी - छाछ, सारहीन अंश
पाठ का अभ्यास
पद के साथ
1. मीरा कृष्ण की उपासना किस रूप में करती हैं ? वह रूप कैसा है?
उत्तर - मीरा ने सदैव अपने आराध्य कृष्ण को अपना पति स्वीकार किया। उन्होंने कृष्ण की उपासना उसी दाम्पत्य-भाव के साथ की है। मीरा कृष्ण के सगुण रूप की उपासना करते हुए कहती हैं कि कृष्ण उनके सब कुछ हैं। श्रीकृष्ण के के अतिरिक्त अ अन्य किसी से भी उनका कोई रिश्ता-नाता नहीं है। मीरा के अनुसार कृष्ण गिर्राज पर्वत को धारण करने वाले एवं सिर पर मोर-मुकुट पहनने वाले हैं। उनका यह रूप अत्यन्त मनोरम है और उन्हें अत्यधिक प्रिय है।
2. मीरा जगत को देखकर रोती क्यों हैं ?
उत्तर - मीरा की कृष्ण के प्रति भक्ति अनन्य है। वह पूर्ण समर्पण भाव के साथ अपने आराध्य को अपना पति मानकर उन पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती हैं। जबकि सांसारिक लोग निजी स्वार्थ के चलते उनकी आलोचना करते हैं, उन्हें उलाहने देते हैं और उन पर तीखे प्रहार करते हैं। यहाँ तक कि उन्हें विषपान करने के लिए भी विवश किया जाता है। मीरा जगत के इस स्वार्थी स्वरूप को देखकर अन्दर तक व्यथित हो जाती हैं और टूटकर रो पड़ती हैं।
पद के आस - पास
1. कल्पना करें, प्रेम प्राप्ति के लिए मीरा को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा ?
उत्तर - कृष्ण के प्रति अपने प्रेम की प्राप्ति के क्रम में मीरा को अंतहीन कष्ट एवं यातनाएँ सहनी पड़ी होंगी। उस काल में रूढ़ियों में बँधे समाज में राज-परिवार की किसी ब्याहता स्त्री का किसी दूसरे पुरुष के प्रति उन्मुक्त प्रेम-भाव किसी कलंक की तरह ही माना जाता रहा होगा और उसका दण्ड भी अत्यधिक कठोरतम रहा होगा। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कृष्ण को पाने के लिए मीरा को अपने घर-परिवार, रिश्ते-नातेदारों के साथ-साथ समाज के लोगों के द्वारा तिरस्कार एवं भले-बुरे शब्द उलाहनों के रूप में सुनने को मिले होंगे। राणा ने तो उनकी जीवन-लीला समाप्त करने के उद्देश्य से उन्हें विषपान तक करने के लिए विवश किया था। अतः कहना गलत नहीं होगा कि प्रेम प्राप्ति के लिए मीरा को कल्पनातीत कठिनाइयों एवं असंख्य कष्टों का सामना करना पड़ा होगा।
2. लोक-लाज खोने का अभिप्राय क्या है ?
उत्तर - लोक-लाज खोने का शाब्दिक अर्थ है- समाज की मर्यादाओं का उल्लंघन करना, समाज अथवा कुटुम्ब द्वारा निर्धारित नियमों को तोड़ना। मीराबाई का विवाह राजपूत राजपरिवार में हुआ था। उस काल में वहाँ स्त्रियों के लिए रस्मो-रिवाज के कई बन्धन थे, जैसे-पर्दे में रहना, घर की चौखट के बाहर न निकलना। उन्हें मन्दिरों में गाने-नाचने, संतों के साथ बैठने, अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध रखने इत्यादि का अधिकार नहीं था। ऐसे कार्य करने वाली स्त्रियों को ठीक नहीं समझा जाता था। समाज की ओर से उन्हें यातना मिलती थी। मीराबाई ने समाज के इन समस्त नियमों एवं बंधनों को तोड़ा और लोक-लाज खो दी।
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