गद्यांशों के प्रसंग संदर्भ सहित व्याख्या

पद 1. पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक चला था! इस ढाई साल के कालखण्ड में हर रोज़ तो शूटिंग होती नहीं थी। मैं तब एक विज्ञापन कम्पनी में नौकरी करता था। नौकरी के काम से जब फुर्सत मिलती थी, तब शूटिंग करता था। येो पास उस समय पर्याप्त पैसे भी नहीं थे। पैसे खत्म होने के बाद, फिर से पैसे जमा होने तक शूटिंग स्थगित रखनी पड़ती थी। शूटिंग का आरम्भ करने से पहले फ़िल्म में काम करने के लिए कलाकार इकट्टा करने का एक बड़ा आयोजन हुआ। विशेषकर अपू की भूमिका निभाने के लिए छह साल का लड़का मिल ही नहीं रहा था। आखिर मैंने अखबार में उस संदर्भ में एक इश्तहार दिया।

संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के संस्मरण 'अपू के साथ ढाई साल' से अवतरित है। इसके लेखक फ़िल्म निर्देशक' सत्यजित राय' हैं।
प्रसंग - पथेर पांचाली' फ़िल्म बनाते समय लेखक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। उनका मूल पाठ 'बांग्ला' में लिखा जिसका हिंदी रूपान्तर 'विलास गिते' ने किया है। उन्होंने समय व धन के अभाव में भी अपनी कलाकृति को निखारा है।

भावार्थ - लेखक ने बताया है कि इस संस्मरण का नाम 'अपू के साथ ढाई साल' क्यों रखा ? इस फ़िल्म का काम पूरा होने में ढाई साल लगा था। फ़िल्म की शूटिंग प्रतिदिन नहीं होती थी। लेखक एक विज्ञापन कम्पनी में काम करते थे। अतः काम से समय मिलने पर ही शूटिंग की जाती थी। इसके साथ निर्देशक महोदय के पास पैसे का अभाव था। पहले पैसे एकत्र किए जाते थे फिर शूटिंग होती थी। जब पैसे समाप्त हो जाते थे तो शूटिंग का काम बन्द हो जाता था। फिर पैसे कमाए जाते इस प्रकार दुबारा पैसे जमा होने तक शूटिंग नहीं होती थी। फ़िल्म बनाने के लिए कलाकारों की आवश्यकता होती है। उनको मुख्य रूप से एक छः वर्ष के बालक की जरूरत थी परन्तु काफी ढूँढ़ने पर भी बालक मिल ही नहीं रहा था। कलाकार फ़िल्म-शरीर की आत्मा होता है। अतः जब तक कलाकार न हो तो फ़िल्म निर्जीव है। फ़िल्म या छोटे से नाटक के लिए प्रथम आवश्यकता कलाकार की होती है, वही मिल नहीं रहा था। अतः परेशान होकर उन्होंने समाचार पत्र में छः वर्ष के बालक के लिए विज्ञापन दे दिया। सामान्य रूप में भी देखा जाता है कि विज्ञापन के माध्यम से अपनी रुचि की वस्तु ढूँढ़ने में आसानी हो जाती है तथा वस्तु मिलती भी अच्छी है। लेखक स्वयं भी एक विज्ञापन कम्पनी में काम करते थे इस कारण उनके लिए ऐसा करना स्वाभाविक था।

विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) सरल व प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली। (2) वाक्य-रचना सुगठित । (3) अंग्रेजी व उर्दू शब्दों के प्रयोग का बाहुल्य; जैसे-' फुर्सत', 'आखिर', 'इश्तहार' आदि।

पद 2. तो! आखिर हमारे पड़ोस के घर में रहने वाला लड़का सुबीर बनर्जी ही 'पथेर पांचाली' में 'अपू' बना। फ़िल्म का काम आगे भी ढाई साल चलने वाला है, इस बात का अंदाजा मुझे पहले नहीं था। इसलिए जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, वैसे-वैसे मुझे डर लगने लगा। अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे अगर ज्यादा बड़े हो गए, तो फिल्म में वह दिखाई देगा! लेकिन मेरी खुशकिस्मती से उस उम्र में बच्चे जितने बढ़ते हैं, उतने अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे नहीं बढ़े। इंदिरा ठाकरुन की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल उम्र की चुन्नीबाला देवी ढाई साल तक काम कर सकी, यह भी मेरे सौभाग्य की बात थी।

संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के संस्मरण 'अपू के साथ ढाई साल' से अवतरित है। इसके लेखक फ़िल्म निर्देशक' सत्यजित राय' हैं।
प्रसंग - विज्ञापन देने पर भी निर्देशक को सही लड़का नहीं मिला, इस कारण वह परेशान थे तभी पत्नी के द्वारा बताए गए लड़के को चुन लिया। वही लड़का 'पथेर पांचाली' में अपू बना।

भावार्थ - फ़िल्म के लिए कलाकार एकत्र करने में सबसे बड़ी कठिनाई छः वर्ष के लड़के को ढूँढ़ने में आई थी। एक दिन अचानक उनकी पत्नी ने पड़ोस की छत पर एक लड़का देखा और उसे बुलाने के लिए कहा। निर्देशक को लड़का पसन्द आ गया। इस प्रकार वह 'सुबीर बनर्जी' नाम का पड़ोसी लड़का 'अपू' बन गया। लेखक को अनुमान नहीं था कि फिल्म पूरी होने में ढाई साल लग जाएगा लेकिन समय, पैसा, मौसम व उचित पात्रों के अभाव में समय बढ़ा चला जा रहा था। दूसरी ओर लेखक को चिन्ता हो रही थी कि समय के साथ बच्चे बड़े लगने लगेंगे तो फिल्म की वास्तविकता नष्ट हो जाएगी, लेकिन लेखक का भाग्य ने साथ दिया और दोनों बच्चे बढ़े नहीं जबकि इस उम्न के बच्चे छः महीने में ही बड़े व परिवर्तित स्वभाव के लगने लगते हैं। दूसरी बात थी कि ढाई वर्ष के समय में 80 वर्ष की चुन्नीबाला देवी, जो मर सकती थी, ने भी ढाई वर्ष तक बच्चों की माँ बनने की भूमिका को सकुशल निभाया। यह लेखक का सौभाग्य ही था कि न तो बच्चे बढ़े और न इन्दिरा ठकुराइन की भूमिका में काम करने वाली चुन्नीबाला देवी ने सहयोग छोड़ा। तीनों पात्रों ने फ़िल्म की शूटिंग में पूरा-पूरा सहयोग देकर दृश्यों का आकर्षक बढ़ा दिया। जिससे फ़िल्म ने अविस्मरणीय बन कर लेखक को 'ऑस्कर पुरस्कार' दिला दिया।

विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) भाषा-साधारण खड़ी बोली। (2) भावों की सरल अभिव्यक्ति। (3) उर्दू शब्दों का प्रयोग।

पद 3. खबर मिली कि भूलो जैसा दिखने वाला और एक कुत्ता गाँव में है। अब लाओ पकड़ के उस कुत्ते को ! सचमुच ! यह कुत्ता भूलो जैसा ही दिखता था। वह भूलो से बहुत ही मिलता-जुलता था। उसके शरीर का रंग तो भूलो जैसा बादामी था ही, उसकी दुम का छोर भी भूलो के दुम की छोर जैसा ही सफेद था। आखिर यह फेंका हुआ भात उसने खाया, और हमारे उस दृश्य की शूटिंग पूरी हुई। फ़िल्म देखते समय यह बात किसी के भी ध्यान में नहीं आती कि एक ही सीन में हमने 'भूलो' की भूमिका में दो अलग-अलग कुत्तों से काम लिया है!

संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के संस्मरण 'अपू के साथ ढाई साल' से अवतरित है। इसके लेखक फ़िल्म निर्देशक' सत्यजित राय' हैं।
प्रसंग - निर्देशक को अपनी फिल्म पूरी करने में पैसे के अभाव का अनेक बार सामना करना पड़ा। इसी संदर्भ में कुत्ते का सीन फिल्माने में छः महीने का अन्तर था। इस बीच पहला वाला भूलो कुत्ता मर गया अब उस अधूरे सीन को पूरा करने के लिए वैसे ही कुत्ते की जरूरत थी। अतः वैसे ही कुत्ते को ढूँढ़कर दृश्य को पूरा किया गया। उसी का यथार्थ चित्रण इन पंक्तियों में हुआ है।

भावार्थ - कुत्ते वाला शेष दृश्य फ़िल्माने के लिए जब सब लोग बोडाल गाँव पहुँचे तो पता चला कि दुर्गा और अपू का भूलो नाम का कुत्ता मर चुका है लेकिन किसी ने बताया कि भूलो जैसा कुत्ता गाँव में है। अतः उस कुत्ते को पकड़कर लाया गया। देखा तो वह कुत्ता भूलो जैसा ही था। इस कुत्ते के शरीर का रंग, भूलो कुत्ते जैसा बादामी था उसकी पूँछ का छोर भी सफेद था जिस प्रकार भूलो कुत्ते की पूँछ का छोर सफेद था। थाली का बचा हुआ भात जिसे सर्वजया ने एक गमले में डाल दिया था वह उस नए कुत्ते ने खा लिया। तब जाकर दृश्य पूरा हुआ। लेकिन जिन लोगों ने पिक्चर देखी वह नहीं पहचान पाए कि एक ही 'सीन' में दो कुत्ते हैं। दृश्य के दोनों अंश में अलग-अलग कुत्ते थे परन्तु इस चतुराई से कुत्तों का अभिनय कराया गया कि वह भूलो नाम के दो कुत्ते एक ही प्रतीत हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्थिक अभाव होने पर भी निर्देशक ने अपनी फ़िल्म की निरन्तरता को नष्ट नहीं होने दिया। निर्देशक के पास प्रशिक्षित कुत्ता लेने के लिए धन नहीं था। अतः गाँव के कुत्ते से ही काम चला लिया गया परन्तु फ़िल्म की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) भाषा-सरल खड़ी बोली। (2) उर्दू, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग।

पद 4. आखिर श्रीनिवास की भूमिका के लिए हमें जो सज्जन मिले, उनका चेहरा पहले वाले श्रीनिवास से मिलता-जुलता नहीं था, लेकिन शरीर से वे पहले श्रीनिवास जैसे ही थे। उन्हीं पर हमने दृश्य का बाकी अंश चित्रित किया। फिल्म में दिखाई देता है कि एक नंबर श्रीनिवास बाँसबन से बाहर आता है और अगले शॉट में दो नंबर श्रीनिवास कैमरे को ओर पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अंदर जाता है। 'पथेर पांचाली' फ़िल्म अनेक लोगों ने एक से अधिक बार देखी है, लेकिन श्रीनिवास के मामले में यह बात किसी के ध्यान में आई है, ऐसा मैंने नहीं सुना !

संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के संस्मरण 'अपू के साथ ढाई साल' से अवतरित है। इसके लेखक फ़िल्म निर्देशक' सत्यजित राय' हैं।
प्रसंग - श्रीनिवास नामक घूमते मिठाई वाले के पीछे-पीछे चलते हुए अपू और दुर्गा का दृश्य फ़िल्माना था परन्तु यह दृश्य भी दो अंशों में चित्रित हुआ क्योंकि बीच में पैसे समाप्त हो गए तथा दोनों अंशों के चित्रांकन में कई महीनों का अन्तर था फिर भी दृश्य बड़ी चतुराई से प्रस्तुत किया गया।

भावार्थ - दोनों अंशों में कुछ महीनों का अन्तर होने के कारण दूसरे अंश की शूटिंग से पहले श्रीनिवास मिठाई वाले की मृत्यु हो गई। अब पहले वाले श्रीनिवास से मिलते-जुलते व्यक्ति की खोज की गई। अन्त में एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसका चेहरा पहले मिठाई वाले से नहीं मिलता था लेकिन शरीर पहले मिठाई वाले जैसा था। दूसरे नम्बर वाले व्यक्ति से शेष दृश्य को पूरा किया गया। लेखक ने चतुराई दिखाई कि पहला मिठाई वाला बाँसबन से बाहर आता है अर्थात् मिठाई वाले का सामने का शरीर व चेहरा दिखाई देता है। दूसरे अंश में जिसमें नया मिठाई वाला था, वह कैमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी के घर में जाता है जिस कारण चेहरा तो दिखाई देता नहीं है परन्तु शरीर का पिछला भाग दिखाई देता है जो दोनों का एकसमान था। अतः दृश्य बड़ा ही आकर्षित करने वाला था। दर्शकों ने 'पथेर पांचाली' फ़िल्म को कई बार देखा, दृश्य को बहुत पसन्द किया, लेकिन श्रीनिवास मिठाई वाले दो व्यक्ति थे ऐसा किसी ने नहीं पहचाना अर्थात् उनके ध्यान में नहीं आया। यह निर्देशक की बहुत बड़ी सफलता थी।

विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) अंग्रेजी शब्दों से मिश्रित भाषा, बोल-चाल की खड़ी बोली। (2) फ़िल्म का आकर्षण दर्शकों को दृश्य से बाँधे रखता है।

पद 5. आखिर एक दिन हुआ भी वैसा ही। शरद ऋतु में भी आसमान में बादल छा गए और धुआँधार बारिश शुरू हुई। उसी बारिश में भीगकर दुर्गा भागती हुई आई और उसने पेड़ के नीचे भाई के पास आसरा लिया। भाई-बहन एक-दूसरे से चिपककर बैठे। दुर्गा कहने लगी- 'नेबूर-पाता करमचा, हे वृष्टी घरे जा!' बरसात, ठंड, अपू का बदन खुला, प्लास्टिक के कपड़े से ढके कैमरे को आँख लगाकर देखा, तो वह ठंड लगने के कारण सिहर रहा था। शॉट पूरा होने के बाद दूध में थोड़ी ब्रांडी मिलाकर दी और भाई-बहन का शरीर गरम किया। जिन्होंने 'पथेर पांचाली' फ़िल्म देखी है, वे जानते ही हैं कि वह शॉट बहुत अच्छा चित्रित हुआ है।

संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के संस्मरण 'अपू के साथ ढाई साल' से अवतरित है। इसके लेखक फ़िल्म निर्देशक' सत्यजित राय' हैं।
प्रसंग - बारिश का दृश्य चित्रित करना था जो वर्षा के मौसम में ही हो सकता था परन्तु उस मौसम में आर्थिक अभाव था। पैसे एकत्र करने तक अक्टूबर अर्थात् शरद ऋतु आ गई। अब वर्षा असम्भव थी परन्तु लेखक निराश नहीं हुए और सफलता मिली।

भावार्थ - शरद ऋतु में आसमान स्वच्छ रहता है भला बादलों का क्या काम ? लेकिन कुदरत के खेल को कोई नहीं जानता। अचानक आसमान में बादल छा गए और मूसलाधार वर्षा होने लगी, बस इसी समय दृश्य को फ़िल्माना था। अपू पेड़ के नीचे खड़ा था। बहन दुर्गा पानी में भीग गई। अपने को पानी व ठंड से बचाने के लिए वह दौड़ी और पेड़ के नीचे खड़े भाई के पास पहुँच गई। बारिश की बूँदें व हवा तेज होने के कारण दोनों भाई-बहन एक-दूसरे से चिपक कर बैठ गए। ठण्ड से परेशान होकर बहन दुर्गा ने कहा- नींबू के पत्ते खट्टे हो गए हैं, हे बादल ! अब घर जाओ। निर्देशक ने अपने कैमरे में से देखा कि दोनों बच्चे बुरी तरह काँप रहे थे। एक तो बरसात के कारण मौसम ठण्डा साथ ही अपू का शरीर खुला था यानि उसने कपड़े नहीं पहन रखे थे। अतः दोनों बालक बुरी तरह काँप रहे थे। बच्चों की दशा को देखते हुए शॉट को जल्दी-जल्दी पूरा किया गया। दोनों बच्चों को ठण्ड से बचाने के लिए गरम दूध मैं ब्रांडी दी गई जिससे दोनों बच्चों के शरीर में गरमाहट हो गई। दर्शकों ने इस शॉट को बहुत पसन्द किया तथा प्रशंसा की। यह निर्देशक की सफलता थी।

विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) भाषा-सरल खड़ी बोली। (2) अंग्रेजी व उर्दू के शब्दों का समन्वय रूप । (3) छोटे वाक्यों की गहनता।

पाठ का अभ्यास

पाठ के साथ

1. पथेर पांचाली फ़िल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक क्यों चला ?
उत्तर - 'पथेर पांचाली' फ़िल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक चलने के निम्नलिखित कारण थे-
(1) निर्देशक एक विज्ञापन कम्पनी में काम करते थे अतः फुर्सत मिलने पर ही शूटिंग का काम किया जाता था।
(2) आर्थिक अभाव के कारण पैसा समाप्त होने पर फिर पैसा एकत्र करने तक शूटिंग स्थगित रहती थी।
(3) अपू की भूमिका के लिए छः वर्ष के बालक को ढूँढ़ने में समय लगा।

2. अब अगर हम उस जगह बाकी आधे सीन की शूटिंग करते, तो पहले आधे सीन के साथ उसका मेल कैसे बैठता ? उसमें से 'कंटिन्युइटी' नदारद हो जाती-इस कथन के पीछे क्या भाव है ?
उत्तर - इस कथन के पीछे निर्देशक महोदय का भाव है कि एक पूरे दृश्य की शूटिंग काशफूलों के साथ करनी थी परन्तु एक दिन में वह दृश्य मात्र आधा ही शूट हो पाया था और शेष आधा अगले दिन करना था लेकिन अप्रिय घटना हो गई। जब सब लोग सात दिन बाद शूटिंग के लिए पहुँचे तो मैदान साफ था। काशफूलों को जानवर खा गए थे। ऐसी स्थिति में दृश्य की निरन्तरता व आकर्षण समाप्त हो जाता। दोनों अंशों में कोई मेल न होने के कारण निरन्तरता गायब हो जाती। इसलिये आधे अंश को एक वर्ष बाद शूट किया गया।

3. किन दो दृश्यों में दर्शक यह पहचान नहीं पाते कि उनकी शूटिंग में कोई तरकीब अपनाई गई है ?
उत्तर - यह दो दृश्य थे- (1) भूलो कुत्ते वाला, (2) श्रीनिवास नामक मिठाई वाले का।
(1) भूलो कुत्ते वाला- अपू की माँ अपू को भात खिला रही थी। अपू का पेट भर गया तो बचा भात गमले में डालकर भूलो को खिलाना था। इस दृश्य का पूर्वार्द्ध तो शूट हो गया था परन्तु उत्तरार्द्ध शूट करने से पहले सूर्य की रोशनी तथा पैसे समाप्त हो गए थे। अतः छ: महीने बाद 'बोडाल गाँव' पहुँचने पर पता चला भूलो कुत्ता मर चुका है लेकिन अचानक भूलो कुत्ते जैसा दूसरा कुत्ता गाँव में मिल गया। अतः, गमले में भात फेंका गया और उस नए कुत्ते ने खाया। दर्शक एक ही दृश्य में दो कुत्तों को नहीं पहचान पाए। दृश्य बड़ा ही स्वाभाविक था।
(2) श्रीनिवास नामक मिठाई वाला- अपू और दुर्गा के पास मिठाई खरीदने के लिए पैसे नहीं थे फिर भी वे मिठाई वाले के पीछे चलते-चलते मुखर्जी के घर तक जाते हैं और शूटिंग अधूरी रह जाती है। इसके आगे की शूटिंग कुछ महीनों के लिए टाल दी जाती है। जब दुबारा गाँव पहुँचे तो श्रीनिवास का देहान्त हो चुका था। अतः नए व्यक्ति की खोज हुई लेकिन ऐसा व्यक्ति मिला जो शरीर से श्रीनिवास जैसा था पर चेहरा नहीं। अतः निर्देशक ने नम्बर एक के श्रीनिवास को बाँसवन से बाहर आते हुए दिखाया और अगले शॉट में दो नम्बर श्रीनिवास कैमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अन्दर आ जाता है। दर्शक एक ही दृश्य में दो व्यक्तियों को नहीं पहचान पाए। इस दृश्य की खूब प्रशंसा हुई।

4. 'भूलो' की जगह दूसरा कुत्ता क्यों लाया गया ? उसने फिल्म के किस दृश्य को पूरा किया ?
उत्तर - 'भूलो' कुत्ते वाला दृश्य दो भागों में फिल्माया गया था जिसका कारण था-पैसे समाप्त होना तथा रोशनी का कम होना। प्रथम अंश में माँ सर्वजया अपू को भात खिला रही है। पेट भर जाने पर अपू तीर कमान से भागता हुआ खेलता है। माँ, अपू के पीछे थाली लेकर जाती है तो भूलो कुत्ता भात खाने के लिए खड़ा हो जाता है माँ बचा हुआ भात एक गमले में डाल देती है। इतना अंश पहले भूलो कुत्ते पर फ़िल्माया। छः महीने बाद दूसरा अंश चित्रित करना था परन्तु तब तक पहला कुत्ता मर गया। अतः भूलो जैसा ही बादामी शरीर व सफेद पूँछ वाला दूसरा कुत्ता लाकर गमले में फेंका हुआ भात दूसरे कुत्ते ने खाया। इस प्रकार दूसरे कुत्ते ने दूसरे अंश को पूरा किया।

5. 'पथेर पांचाली' फ़िल्म में श्रीनिवास की भूमिका एक मिठाई बेचने वाले की थी। उनके गुजर जाने के बाद उनके शरीर से मिलता-जुलता पर चेहरे से अलग व्यक्ति मिला। दृश्य का बाकी अंश दो नम्बर के श्रीनिवास से पूरा किया गया। दृश्य के अगले शॉट में दो नम्बर श्रीनिवास कैमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अन्दर जाते हैं।
उत्तर - 'पथेर पांचाली' फ़िल्म में श्रीनिवास की भूमिका एक मिठाई बेचने वाले की थी। उनके गुजर जाने के बाद उनके शरीर से मिलता-जुलता पर चेहरे से अलग व्यक्ति मिला। दृश्य का बाकी अंश दो नम्बर के श्रीनिवास से पूरा किया गया। दृश्य के अगले शॉट में दो नम्बर श्रीनिवास कैमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अन्दर जाते हैं।

6. बारिश का दृश्य चित्रित करने में क्या मुश्किल आई और उसका समाधान किस प्रकार हुआ ?
उत्तर - बारिश का दृश्य वर्षा के मौसम में आसानी से शूट किया जा सकता था परन्तु उस समय उनके पास पैसा नहीं था। पैसा एकत्र होते-होते अक्टूबर का महीना (शरद ऋतु) आ गया। शरद ऋतु में बरसात नहीं होती। आखिर एक दिन आसमान में बादल छा गए और मूसलाधार वर्षा हो गई। इस प्रकार निर्देशक ने वर्षा का लाभ उठाकर अपनी मुश्किल का समाधान किया। यह शॉट दर्शकों को बहुत पसन्द आया।

7. किसी फ़िल्म की शूटिंग करते समय फ़िल्मकार को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उन्हें सूचीबद्ध कीजिए।
उत्तर - किसी फ़िल्म की शूटिंग करते समय फ़िल्मकार को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है- (1) पटकथा का चयन व लेखन; (2) पात्रों का चयन; (3) समय का समायोजन; (4) आर्थिक आवश्यकता; (5) लोकेशन का चुनाव; (6) दृश्यों का समायोजन; (7) उचित टेक्नीशियन; (8) राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियाँ।

पाठ के आस - पास

1. तीन प्रसंगों में राय ने कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ की हैं कि दर्शक पहचान नहीं पाते कि ...... या फ़िल्म देखते हुए इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि ...... इत्यादि। ये प्रसंग कौन से हैं, चर्चा करें और इस पर भी विचार करें कि शूटिंग के समय की असलियत फ़िल्म को देखते समय कैसे छिप जाती है ?
उत्तर - प्रस्तुत संस्मरण में मुख्य तीन प्रसंग हैं-
(1) भूलो नाम के दो कुत्ते लाए जाते हैं परन्तु फ़िल्म में एक ही कुत्ता लगता है क्योंकि दोनों कुत्तों का रंग व आकार एक-सा था।
(2) धुआँ उड़ाती रेलगाड़ी व सफेद काशफूलों का दृश्य फ़िल्माते समय तीन रेलगाड़ियों का प्रयोग किया, कारण दृश्य बड़ा था। फ़िल्म फोटोज़ को जोड़कर बनाई जाती है। एक फोटो का प्रभाव मस्तिष्क पर कुछ सेकण्ड तक रहता है। उन प्रभाव वाले सेकण्ड के समाप्त होने से पूर्व दूसरी फोटो आ जाती है तो दृश्य एक ही लगता है। इसी प्रकार से तीनों रेलगाडियों को जोड़ा गया।
(3) तीसरी टिप्पणी में श्रीनिवास नाम के मिठाई वाले दो हैं- शरीर के डील-डौल से दोनों एक हैं परन्तु चेहरे में अन्तर था। अतः फ़िल्मकार ने पहले दृश्य में मिठाई वाले को सामने से दिखाया और दूसरे मिठाई वाले को पीठ की ओर से दिखाया। अतः डील-डौल से वह पहले जैसा ही लग रहा था। अतः दर्शक इस वास्तविकता को नहीं जान जाए।

2. पथेर पांचाली फिल्म में इंदिरा ठाकरून की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल की चुन्नीबाला देवी ढाई साल तक काम कर सकीं। यदि आधी फ़िल्म बनने के बाद चुन्नीबाला देवी की अचानक मृत्यु हो जाती तो सत्यजित राय क्या करते ? चर्चा करें।
उत्तर - अस्सी साल की चुन्नीबाला देवी जो 'पथेर पांचाली' फिल्म में इंदिरा ठाकरून की भूमिका निभा रही थीं। अचानक उनकी मृत्यु हो जाने पर फ़िल्मकार पटकथा के कथानक में उनकी वास्तविक मृत्यु दिखाकर शेष पटकथा का कथानक बदल देते। अथवा चुन्नीवाल देवी जैसी अन्य महिला को ढूँढ़ कर अपनी फ़िल्म पूरी कर लेते चाहे वह महिला थोड़ी का आयु की होती पर इस स्तर पर आकर आयु का अन्तर व शारीरिक अन्तर कम रह जाता है।

3. पठित पाठ के आधार पर यह कह पाना कहाँ तक उचित है कि फ़िल्य को सत्यजित राय एक कला-माध्यम के रूप में देखते हैं, व्यावसायिक माध्यम के सा में नहीं।
उत्तर - सत्यजित राय अपनी फ़िल्म 'पथेर पांचाली' को एक कला माध्यम की दृष्टि। देखकर कलात्मक फ़िल्म बनाना चाहते थे। उनका विचार व्यावसायिक फिल्म बनाने का नां था। फ़िल्म को कलात्मक बनाने के लिए 'अपू' को बारिश वाले दृश्य में वस्त्र नहीं पहनाए भाई-बहन का लिपटना, पेड़ के नीचे खड़ा होना दिखाया। काशफूलों के प्राकृतिक दृश्य तय धुआँ छोड़ती रेलगाड़ी के दृश्यों ने फिल्म को कलात्मकता दी जिसके लिए उन्हें एक वर्ष सर प्रतीक्षा करनी पड़ी। बच्चों के भोजन में भात दिखाया, कोई होटल मेज-कुर्सी नहीं दिखाई इसी प्रकार खिलौनों में सस्ता तीर-कमान प्रयोग किया आधुनिक मशीनी खिलौनों का नहीं यह समस्त बातें फ़िल्मकार के कलात्मक विचारों को ही प्रकट करती हैं।

भाषा की बात

1. हर क्षेत्र में कार्य करने या व्यवहार करने की अपनी निजी या विशिष्ट प्रकार की शब्दावली होती है। जैसे अप के साथ ढाई साल पाठ में फिल्म से जडे शब्द शूटिंग, शॉट, सीन आदि। फ़िल्म से जुड़ी शब्दावली में से किन्हीं दस की सूची बनाइए।
उत्तर - कलाकार, इंटरव्यू, सीन, चित्रित, निर्देशक, छायाकार, अभिनेता, कंटिन्युइटी, शॉट्स, साउण्ड रिकॉर्डिस्ट ।

2. नीचे दिए गए शब्दों के पर्याय इस पाठ में ढूंढ़िए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए -
इश्तहार, खुशकिस्मती, सीन, वृष्टि, जमा।
उत्तर -(क) इश्तहार = विज्ञापन।
वाक्य प्रयोग - अमिताभ बच्चन 'पोलियो' का विज्ञापन निःशुल्क करते हैं।

(ख) खुशकिस्मती = सौभाग्य।
वाक्य प्रयोग - फ़िल्मकार का सौभाग्य था कि शरद ऋतु में धुआँधार वर्षा हो गई।

(ग) सीन = दृश्य ।
वाक्य प्रयोग - धुआँधार वर्षा में दुर्गा का भीगकर भागना और भाई से लिपट जाना बड़ा ही भावनात्मक दृश्य था।

(घ) वृष्टि = वर्षा ।
वाक्य प्रयोग - मोर वर्षा ऋतु में नृत्य करते हैं।

(ङ) जमा = एकत्र करना।
वाक्य प्रयोग - सत्यजित राय पैसा एकत्रित करने के लिए शूटिंग रोक दिया करते थे।